पीके की शर्तें
प्रशांत किशोर अपनी शर्तों पर कांग्रेस में जाना और काम करना चाहते थे। उनकी शर्तें ही बताती हैं कि कांग्रेस कितनी लाचार हो चुकी है। रणनीति बनाने और अपने इशारे पर संगठन को नचाने में फर्क होता है। पीके को भी पता था कि उनमें कांग्रेस को अपना ‘तारणहार’ दिख रहा है, लिहाजा वह रणनीति के नाम पर देश की सबसे बड़ी पुरानी को पार्टी को उंगली पर नचाना चाहते थे। अलग-अलग रिपोर्ट्स में अंदरखाने से जो बातें निकल रही हैं, वो इसी तरफ तो इशारा कर रही हैं। पार्टी चीफ और पीएम कैंडिडेट अलग-अलग हों। प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथ में पार्टी की कमान हो। यानी कौन राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, कौन पीएम कैंडिडेट हो…ये सब पीके तय करना चाहते थे। और तो और, टिकट किसे दिया जाए, क्यों दिया जाए, ये भी पीके तय करेंगे! किस पार्टी के साथ गठबंधन किया जाए, किस पुराने सहयोगी से पीछा छुड़ाया जाए, ये भी पीके तय करेंगे! प्रशांत किशोर की ये शर्तें अपने आप में कांग्रेस की दुर्दशा के दस्तावेज हैं। ग्रैंड ओल्ड पार्टी जो अब भी देश की दूसरे नंबर की पार्टी है, उसका यही मोल रह गया कि पार्टी से बाहर का कोई शख्स उसे अपने अंदाज में हांकने का ख्वाब देख सकता है। कांग्रेस चाहती थी कि पीके एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप का हिस्सा बनें लेकिन प्रशांत किशोर पार्टी में अपने हिसाब से फैसले की खुली छूट चाहते थे। वह एक तरह से बिना जिम्मेदारी के असीमित अधिकार चाहते थे लेकिन ये विशेषाधिकार आज की तारीख में सिर्फ गांधी परिवार के पास है।
समस्या को ही समाधान बनाने का फॉर्म्युला!
जीरो जवाबदेही के साथ असीमित अधिकार। यही तो आज कांग्रेस की समस्या है। यूपीए राज में यही दिखा, प्रधानमंत्री की तरफ से लाए गए अध्यादेश को पार्टी का सांसद मीडिया के सामने फाड़ सकता है। कांग्रेस के भीतर असंतुष्टों के समूह G-23 भी यही तो सवाल उठाता है। पंजाब में कांग्रेस जैसे खुद ही अपनी हार की स्क्रिप्ट लिख रही थी। उस वक्त G-23 के अहम सदस्य कपिल सिब्बल ने चिंता जताई थी कि पार्टी में फैसले कौन लेता है, ये हमें नहीं पता लेकिन पता भी है। प्रशांत किशोर भी खुद के लिए न्यूनतम जवाबदेही के साथ असीमित अधिकार चाह रहे थे। यानी पार्टी जिस समस्या से जूझ रही है, खुद भी उसी समस्या का सबब बनकर समाधान की कोशिश करते!
हितों का टकराव
एक तरफ तो पीके कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में रमना चाहते थे। दूसरी तरफ वह जिस संस्था IPAC के संस्थापक है, वह टीआरएस के लिए काम करने का डील कर रही है। पीके कांग्रेस में रहेंगे और उनकी कंपनी टीएमसी के लिए भी काम करेगी, टीआरएस के लिए भी, वाईएसआर कांग्रेस के लिए भी…अगर मौका मिला तो बीजेपी के लिए भी। वह एक तरफ कांग्रेस में खुली छूट के साथ काम भी करना चाहते थे तो दूसरी तरफ उनकी कंपनी IPAC पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों में कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वियों के लिए काम करेगी। ये तो सीधे-सीधे हितों के टकराव का मसला है। आखिर पीके ने यही तो सोचा होगा कि ‘मजबूर’ कांग्रेस के पास उनकी शर्तों को मानने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है।